मंगलवार, अप्रैल 04, 2017

कला

सिनेमा और साहित्य - किश्त दो


प्रेमचंद के क़िस्से के बाद उसी कड़ी में दूसरा ख़ास नाम मजाज़ का है। ऐसा महसूस होता है कि मजाज़ इस दुनिया के लिए बने ही नहीं थे। उनका मिज़ाज, उनकी क़ैफ़ियत और तबीयत दुनिया से मेल ही नहीं खाती थी। उनका क़िस्सा भी वहीं से शुरू होता है जहां प्रेमचंद का लगभग ख़त्म हो जाता है।


साहित्य में जो क्रांति हो रही थी 1930 के दशक में, जिसे हिन्दी में प्रगतिशील आंदोलन कहा गया और उर्दू में तरक़्क़ी पसंद तहरीक़। यह तहरीक़ मजाज़ की ज़िन्दगी में एक निर्णायक मोड़ सिद्ध हुई। पढ़ाई के दौरान और कुछ बाद तक आगरा में रहकर इश्क़-मोहब्बत और रवायती क़िस्म की शायरी करने वाला यह शायर इस तहरीक़ से इतना मुतास्सिर हुआ कि एक तरह से इसका अलमबरदार बन गया। 20 बरस की उम्र थी मजाज़ की, जब वह अपने पिता की मर्ज़ी की इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर बीए करने अलीगढ़ जा पहुंचे। आगरा छूटा और अलीगढ़ का माहौल क्या मिला, मजाज़ के तो तेवर ही बदल गये।

यहां उन्हें उस्ताद शायरों के साथ ही अपने हमउम्र आला शायरों की सोहबत भी मिली। बावजूद इसके, मजाज़ का अपना एक रंग रहा, अपना एक अलग ढंग रहा। वह अपने हमउम्रों और अपने ऐन पहले के शायरों से अलग खड़े नज़र आये। उनकी शायरी उनकी अपनी अलहदा पहचान का सबूत बनी रही।

Majaz Lucknowi source - google

1939 में सिब्ते हसन और अली सरदार जाफ़री के साथ मिलकर मजाज़ ने एक रिसाले नया अदब का संपादन किया था लेकिन आर्थिक मुश्किलों से वह ज़्यादा दिन तक चल न सका। यहां से मजाज़ का मत लखनउ से उचट गया और उन्होंने दिल्ली का रुख़ किया। यहां एकाध नौकरी की और यहां भी मन नहीं लगा। दिल्ली से विदाई लेते हुए कहा - नौहागर जाता हूं मैं नाला-ब-लब जाता हूं मैं..। दिल्ली छोड़ी तो बंबई पहुंचे। यहां कुछ दोस्तों के साथ मिलकर कुछ दिन काटे लेकिन बंबई की भयानक चकाचौंध और बनावटी फ़िज़ा से भी तालमेल नहीं बिठा पाये। बंबई की सड़कों पर भटकते हुए उन्होंने अपनी सिग्नेचर नज़्म कही -

शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूं
जगमगाती, जागती सडकों पे आवारा फिरूं
गैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं
ऐ ग़मे दिल क्या करूं, ऐ वहशते-दिल क्या करूं।

दरअस्ल, यह नज़्म उनकी ज़िन्दगी, उनकी ज़ह्नी क़शमक़श और उनकी दुनियावी फ़िक्र का शाहकार के बतौर आज तक ज़िन्दा है। बंबई से उकताहट को ज़ाहिर करने वाली इस नज़्म को 1953 में आयी फिल्म ठोकर में संगीतबद्ध किया गया। तलअत मेहमूद और आशा भोसले की आवाज़ों में। लेकिन फिल्म के लिहाज़ से इसके चुनिंदा अंतरों को ही इसमें शामिल किया गया। बाद के दौर में प्राइवेट एल्बमों के लिए इस नज़्म को कई आवाज़ें मिलीं। इस नज़्म का जादू कुछ ऐसा रहा कि यह नज़्म आज भी कहीं न कहीं किसी हवाले से सिनेमा में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाती रहती है। कुछ बरस पहले की फिल्म खोया खोया चांद के एक नग़मे में इस नज़्म का एक हिस्सा कोट हुआ था।

रही बात मजाज़ की तो वह बंबई से उकताकर लखनउ लौट गये थे। इश्क़ की नाकामी और तरह-तरह के अफ़सोसों से ग्रस्त होकर शराब पीने की आदत पाल बैठे जो कई रोग देकर उनकी जान ले गयी। लेकिन, उनका इसरार यही रहा कि वह शराब नहीं छोड़ेंगे और घड़ी तो नहीं, अगर बस चले तो घड़ा रखकर पिएंगे। दरअस्ल, मजाज़ की मनःस्थिति को उस दौर की बेचैनी, खिन्नता और बौखलाहट कहा जा सकता है। र्काइे उन्हें इन्क़िलाबी शायर कह गया तो किसी ने कम उम्र में बड़ा साहित्य रचने के कारण उर्दू का कीट्स कहा तो फ़ैज़ उन्हें क्रांति का ढिंढोरची नहीं क्रांति का गायक कह गये। लेकिन, मजाज़ अपने दौर का प्रतीक शायर था। मजाज़ अपने दौर की कुरूपता, घुटन और कड़वाहट को इस तरह जी गया था जैसे वो वक़्त मजाज़ की शक़्ल लेकर जी रहा हो।

सिने जगत ने मजाज़ नाम के एक मुक़म्मल दौर को भी क़ायदे से अपनाने में गुरेज़ किया। न किया होता तो तस्वीर में कुछ और हसीन रंग होते। ऐसी ख़बर है कि मजाज़ की ज़िंदगी पर अब कोई फिल्म भी बन रही है। यह भी बहुतों को पता है कि मजाज़ के ख़ानदान के कई नाम सिनेमा की दुनिया के अहम हिस्से बने और रहे। बस, मजाज़ ही इस दुनिया के लिए मुफ़ीद नहीं था। जैसे अपने सही वक़्त से बहुत पहले या बहुत बाद में दुनिया में आया हो। जैसे ग़लती से इस दुनिया में आ गया हो, एक एलियन की तरह। शायद इसलिए अपनी शायरी में एलिनिएशन और एसकेपिज़्म के बहुत से संकेत भी छोड़ गया है।

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