सोमवार, अप्रैल 03, 2017

कला

सिनेमा और साहित्य - किश्त एक


भारत का सिनेमा सौ साला हो चुका। इस लम्बे और यादगार सफ़र में सिनेमा कभी साहित्य की उंगली पकड़कर चला, कभी हाथ थामकर, कभी आगे-कभी पीछे तो कभी कंधों पर भी। इस दिलचस्प और मक़ामी सफ़र के कई मोड़ों पर, कई सिरों से, कई पहलुओं को टटोला जा सकता है।


मुझे तो होश नहीं आप मशवरा दीजै
कहां से छेड़ूं फ़साना कहां तमाम करूं। बस ऐसी ही एक पेचीदगी है कि सिनेमा और साहित्य के तालमेल पर किस सिरे से बात शुरू की जाये। एकदम शुरू से, किसी बेहतरीन मोड़ से या फिर उल्टी गिनती की तरह? बहरहाल, इस पहेली को पहेली रहने देते हैं और इस वक़्त जिस वक़्त का ख़याल करवटें ले रहा है, उसी की पड़ताल से आगाज़ करता हूं।

Munshi Premchand source - google

वक़्त करवट लेने लग गया था। साहित्य में एक नये दौर की शुरुआत हो रही थी। 1930 के दशक में लखनउ में प्रगतिशील लेखक संघ बन रहा था। छायावाद और द्विवेदी युग अपने अंतिम समय में था। इधर उर्दू की दुनिया में इक़बाल, हाली व दाग़ जैसे शायरों का दौर ख़त्म हो रहा था और फ़िराक़ का शुरू। 40 के दशक में फ़ैज़, इंशा, मजरूह, साहिर और मजाज़ आदि शायर एक नयी आवाज़ लेकर आ रहे थे। इप्टा (IPTA) की नींव डाली जा रही थी। साहित्य में ये दो दशक बड़े बदलाव के साक्षी बन रहे थे।

सिनेमा में भी इस समय में बड़े बदलाव हो रहे थे। सिनेमा का छायावादी युग समाप्त हो रहा था। सिनेमा नयी दुनिया में कदम रख चुका था और अब उस नयी दुनिया में अपने वजूद की हांक लगाने को बेक़रार था। एक नयी लहर, एक नया जुनून और एक नयी आवाज़ साहित्य और सिनेमा के गलियारों में बुलन्द हो रही थी। आज़ादी मिलने के आसपास के वक़्त में कई शायर और साहित्यकार मुंबई की तरफ़ कूच कर रहे थे और सिनेमा कभी उन्हें बुला रहा था या वे सिनेमा की तरफ़ आकर्षित हो रहे थे। शब्दों के कुछ जादूगरों ने सिनेमा से चोली-दामन का साथ जोड़ा तो कुछ ने आधा-अधूरा सा रिश्ता क़ायम किया। और कुछ ऐसे भी थे जिन्हें सिनेमा के चौबारे सुहाये ही नहीं।

एक महत्वपूर्ण बात यहां कुछ इस ज़ाविये से करने वाली है कि मुंशी प्रेमचंद का सिनेमा से जुड़ाव किस तरह का रहा। अपनी शोहरत, इज़्ज़त के साथ मुंशी जी बंबई जा पहुंचे थे। तमाम शोहरतों के बावजूद मुंशी जी अभाव का जीवन जीने के लिए मजबूर थे। इसी सिलसिले में लेखक के तौर पर नौकरी के लिए मुंशीजी फिल्मों की नगरी में जा बसे। कुछ फिल्मों के लिए केवल पैसों के लिए लेखन करते रहे, मौक़ा मिलने पर मज़दूर जैसी दो-एक फिल्मों में एकाध दृश्य में बतौर अभिनेता भी नज़र आये। इस पूरी चहल-पहल के बीच मुंशी जी फिल्म उद्योग से खिन्न रहे। लेखन के हल्केपन और निर्माताओं की स्तरहीन मांगों के लिए कलम चलाना उन्हें नागवार गुज़रा। अपने अंतिम समय से कुछ ही समय पहले उन्होंने बंबई से नाता तोड़ लिया और अपने देस लौट गये। 1936 में उनका देहांत हुआ और 1937-38 में उनके उपन्यास बाज़ार-ए-हुस्न पर एक तमिल फिल्म बनी सेवासदनम। इस फिल्म ने खूब धूम मचायी, तब जाकर बंबई की फिल्म नगरी को समझ आया कि मुंशी जी की प्रतिभा क्या थी। ख़ैर तब तक तो देर हो चुकी थी और मुंशी जी लौटकर न आ पाने वाले सफ़र पर चले गये थे।

मुंशी प्रेमचंद के बंबई से मनमुटाव या खिन्नता या कहें मन उचाट के कारण ही शायद ऐसा हुआ कि प्रमुख हिन्दी लेखक और कवि बंबई के फिल्म उद्योग से कभी जुड़ नहीं सके। दो-एक अपवाद ज़रूर होंगे लेकिन आज तक स्थिति यही है कि हिन्दी के शीर्ष लेखक और कवि फिल्मों के आलोचक ज़्यादा हैं, साथी कम। कारण और भी बेशक़ हैं और होंगे, लेकिन अक्सर यही ख़याल आता है कि मुंशी जी के कटु अनुभव इस स्थिति के मूल में रहे हैं। फिर सोचता हूं काश ! बंबई की फिल्म नगरी ने मुंशी जी को ससम्मान अपनाया होता और यह स्थिति नहीं होती तो भारत को और कितने बेहतरीन चलचित्र मिले होते, शायद एक अलग ढंग और धारा का सिनेमा भी विकसित हुआ होता और शायद हमारे सिनेमा में विश्व स्तरीय चित्रों की संख्या बहुत अधिक होती।

जो होना है, अक्सर हो कहां पाता है। मुंशी जी का जीवन भारत के लेखक के जीवन का यथार्थ उदाहरण आज भी बना हुआ है। कितने ही लेखकों का उचित मूल्यांकन उनके जीवन में नहीं हो पाता। कितने ही लेखकों की प्रतिभा उसके समय की समझ में नहीं आती। कितने ही लेखक अभूतपूर्व या अद्वितीय हुनर के बावजूद तंगहाली या कमज़ोर माली हालत में जीने को मजबूर हैं। कितने ही लेखक अभिशप्त हैं कि उनका जीवन उनकी मौत के बाद ही रंग लाएका। जैसा कि मुंशी जी के जाने के बाद हुआ। उन्हें कथासम्राट या उपन्याससम्राट कहकर अब हमारी ज़ुबान नहीं थकती। उनके सृजन और जीवन पर लगातार शोध किये जा रहे हैं। उनके लेखन पर बिमल राय, सत्यजीत रे और गुलज़ार जैसे फिल्मकार उनके जाने के बाद फिल्में बनाते हैं और उन्हें वह सब कुछ अब मिलता है, जिसके हक़दार तो वह तब भी थे।

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