सोमवार, अक्तूबर 30, 2017

आलेख

तो कब ख़त्म होने वाला है भाषा का झगड़ा..?


भाषा से प्रेम करते हैं हम। कहते हैं साहित्य वहां से शुरू होता है जहां भाषा शब्दों का नहीं बल्कि भावों/विचारों का अर्थ देती है। यानी भाषा इतनी महान होती है कि वह अभिव्यक्ति का माध्यम बनते ही आपको व्यक्ति के योग्य या मूर्ख होने की पहचान करा देती है।


इस आलेख के पीछे एक प्रेरणा है और एक कारण। पहले प्रेरणा का खुलासा करूं तो वह है एक साक्षात्कार। हिंदी-उर्दू के प्रचंड विद्वान और पद्मभूषण से सम्मानित किये जा चुके साहित्यकार व लेखक श्री गोपीचंद नारंग का एक साक्षात्कार मैंने 2007 में एक समाचार पत्र समूह के लिए किया था। उस साक्षात्कार से फिर गुज़रा तो यह लेख लिखने की तरक़ीब सूझ गयी। फिर शुक्रिया नारंग साहब, उन यादों के लिए जो बार-बार किसी पहलू पर चिंतन के समय उपयोगी साबित हो जाती हैं।

Gopichand Narang. image source: Google

वज्ह मुलाहिज़ा करें - कल यानी 29 अक्टूबर 2017 की शाम यहां भोपाल में वरिष्ठ कवि श्री जंगबहादुर श्रीवास्तव 'बन्धु' जी के सम्मान में एक कार्यक्रम हुआ। इस मौक़े पर पेशे से सरकारी प्रोफेसर डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र को बन्धु जी के काव्य संग्रह 'कुछ बेलपत्र कुछ तुलसीदल' पर समीक्षा प्रस्तुत करनी थी। मिश्र जी तो तयशुदा कार्यक्रम में पहुंचे नहीं, अलबत्ता समीक्षा की प्रति भिजवा दी। फिर सम्माननीय बुज़ुर्गों के आदेश पर उस समीक्षा के वाचन की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी गयी।

समीक्षा मुझे कार्यक्रम स्थल पर ही दी गयी तो मैं उसे पहले से पढ़ नहीं सका, सीधे मंच से ही पढ़ना थी। मतलब यह कि मैं वाचन करते हुए ख़ुद भी पहली बार वह समीक्षा सुन रहा था। अकादमिक ढंग से लिखी गयी वह समीक्षा इन दिनों लिखी जा रही समीक्षाओं की परिपाटी के हिसाब से ही लिखी गयी थी। एक स्थान पर मिश्र जी ने उल्लेख किया कि बन्धु जी अपने गीतों में तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशी शब्दावली का अनूठा प्रयोग करते हैं। अब इस प्रसंग में उन्होंने "आज़ाद" शब्द को विदेशी क़रार दे दिया..!

मेरा माथा ठनका, मैंने आपत्ति दर्ज करते हुए वाचन पूरा किया और चला आया। तबसे उपरोक्त सवालों से जूझ रहा हूं। अब तक उर्दू को विदेशी भाषा मानने की प्रवृत्ति ख़त्म नहीं हुई। ये ग़लत मानसिकता अब तक हमारी सोच में समायी हुई है। यह कट्टरता नहीं है तो और क्या है? जिस साक्षात्कार का ज़िक्र मैंने पहले किया उसी से नारंग साहब का एक कथन यहां प्रस्तुत करता हूं -

"एक भाषा की मोहब्बत दूसरी भाषा को नहीं मारती। भाषा के नाम पर झगड़ा करने वाले राजनीति करते हैं और इसके लिए सिर्फ भाषा का शोषण करते हैं।
...भाषाई झगड़ा खड़ा करने वालों को समझना चाहिए कि हम बहुभाषी हैं। रोजमर्रा के जीवन में हम कम से कम दो या तीन भाषाओं से रूबरू होते हैं यानी हम एक साथ कई भाषाओं से जुड़ते हैं। और फिरए हिंदी तो इतनी उदार भाषा है कि वह किसी भाषा के आड़े नहीं आती और खुद को सबसे जोड़कर चलती है। मैं कहता हूं कि प्रयोग की सतह पर हिंदी की सबसे बड़ी ताकत उर्दू है और उर्दू की सबसे बड़ी ताकत हिंदी। बंटवारे की राजनीति में यह झगड़ा पैदा हो गया लेकिन अब इसके खत्म होने के दिन आ गए हैं।"
(श्री गोपीचंद नारंग से लिये गये साक्षात्कार को पूरा पढ़ने के लिए निम्नांकित शीर्षक पर क्लिक करें)

"हिंदी और उर्दू एक-दूसरे की ताक़त हैं"


इस रोशनी में मैं समझता हूं कि मिश्र जी जैसे लोगों को स्वयं को साहित्यकार कहने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए और कुछ जायज़ सवालों के जवाब अपने अंदर तलाशने चाहिए।
  • क्या आप भाषा से प्रेम करते हैं? क्या आप साहित्य से भी प्रेम करते हैं?
  • क्या आप भारत को एक बहुभाषी देश के रूप में स्वीकारते हैं?
  • क्या आप जानते हैं कि उर्दू का जन्म भारत में ही हुआ है? या आप अपने पूर्वाग्रहों को ही सत्य मानते हैं?
  • क्या आप यह स्वीकार करने में तार्किक दृष्टि रखते हैं कि भारत की हिन्दी पट्टियों में उर्दू की बस्तियां भी हैं और यहां बोली जाने वाली भाषा में दोनों की मिली-जुली शब्दावली सांस लेती है?
  • क्या आप भाषा और साहित्य को वैमनस्य को बढ़ावा देने का हथियार बनाते हैं या समरसता क़ायम करना कला का अर्थ, औचित्य अथवा लक्ष्य समझते हैं?
  • भाषा और अदब के सच्चे फ़नक़ार एक बड़ी मुद्दत से आस लगाये बैठे हैं कि इस तरह के झगड़े ख़त्म होने वाले हैं। क्या एक साहित्यकार की हैसियत से आप इन सच्चे आशिक़ों की उम्मीदें तोड़ने बैठे हैं?
ऐसे ही तमाम सवालों और विचारों से गुज़रें और ऐसे बेढंगे, तथ्यहीन और किसी व्यक्ति या संगठन की अंधश्रद्धा से ग्रसित जुमलों को न लिखकर भाषा और साहित्य की दुनिया पर बराए-करम मेहरबानी करें। अपने ही एक शेर से इस बात को फ़िलहाल यहीं विराम देता हूं:

दे इत्रदान का अदब दे पानदान का शऊर
हों ख़ुश्बुएं ख़याल में हो ज़ायक़ा ज़बान में।

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